वेदों के अनुसार कैसे मिलती है मुक्ती ?
वेदों के अनुसार कैसे मिलती है मुक्ती इसको जानने से पहले यह पढ़िए
दोस्तों अक्सर हम लोग अपने इस जीवन में गलत गलत निर्णय लेते हैं। गलत गलत काम करते हैं व और तो और गलत स्वभाव भी रखते है। हालाँकि ज्यादातर लोगों को मन ही मन ये पता होता है की जो कुछ भी वह लोग करने जा रहे हैं वह गलत है इसका बुरा ही परिणाम होने वाला है उनका अंतर मन बार बार उनसे पुकार लगता है की यह गलत है गलत है व गलत है। पर फिर भी वे डीठ लोग समय , परिस्थ्तिति या भगवान को उनके जीवन में आने वाली मुसीबतों का कारन समझते है।
अपने सही वक्त में लोग घमंड में चूर होकर किसी को नीचे दिखाना या गलत का साथ देखर किसी बेबस समय के मारे व्यक्ति का फायदा उठाना या उसके साथ बुरा करके ये सोचते हैं की मेरे साथ तो कुछ बुरा ही नहीं हो सकता।
लेकिन जब समय , प्रकृति व नियति अपनी आयी पे आते हैं तब उस दुष्ट या कहें भटके व्यक्ति के परखचे उड़ जाते हैं इतना ही नहीं यह सब उसकी पत्नी व बच्चों को भी भुगतना पड़ता है। फिर क्या होता है पता है वह दुष्ट व्यक्ति सोचता है की भगवान ने उसके साथ अच्छा नहीं किया अब वह भगवान को मानना छोड़ कर पूजा पाठ भी त्याग देता है।
तो देखा आपने दोस्तों कैसे ज्यादातर लोग ऐसे ही प्रवृति के होते हैं इस कलयुग में।
अपने बुरे कर्मो का प्रायश्चित किये बिना आप कभी भी ईश्वर को नहीं पा सकते ईश्वर तो क्या आप अपनी सामान्य जीवन में भी सफलता नहीं पा पाएंगे
हालाँकि नियति या समय ने आपको फटकार तो लगाती है लेकिन जब तक आपको इन सब पुरे कर्मो बुरे चरित्र
या बुरे सवभाव का प्रायश्चित नहीं होगा तब तक इस त्रिभुवन में आपकी नईया पार नहीं लग सकती हैं।
यही था इस आर्टिकल का ज्ञान
अब मै आपको वेदों में मुक्ति विषय से अवगत करने जा रहा हूँ इसमें आपको व्यवस्थित रूप से व्याख्या व उसके पश्चात प्रश्न उतर पढ़ने व जानने को मिलेंगे
ऋग्वेद मुक्ति विषय
संस्कृत - अथ मुक्तिविषयः संक्षेपत:
एवं परमेश्वरोपासनेनाविद्याऽधर्माचरणनिवारणाच्छुद्धविज्ञान-
धर्मानुष्ठानोन्नतिभ्यां जीवो मुक्तिं प्राप्नोतीति। अथात्र योगशास्त्रस्य
प्रमाणानि। तद्यथा-
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः॥१॥
अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम्॥२॥
अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिर-
विद्या॥३॥
दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिता॥४॥
सुखानुशयी रागः॥५॥
दुःखानुशयी द्वेषः॥६॥
स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः॥७॥
अ० १। पा० २। सू० ३९॥
तदभावात्संयोगाभावो हानं तदृशेः कैवल्यम्॥८॥
अ० १। पा० २। सू० २५॥
तद्वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम्॥९॥
अ० १। पा० ३। सू० ५०॥
सत्त्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति॥१०॥
अ० १। पा० ३। सू० ५५॥
तदा विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम्॥११॥
अ० १। पा० ४। सू० २६॥
पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा
अ० १। पा० ४। सू० ३४॥
अथ न्यायशास्त्रप्रमाणानि-
दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरा-
चितिशक्तिरिति॥१२॥
पायादपवर्गः॥१॥
बाधनालक्षणं दुःखमिति॥२॥
भाषार्थ-इसी प्रकार परमेश्वर की उपासना करके, अविद्या आदि
क्लेश तथा अधर्माचरण आदि दुष्ट गुणों को निवारण करके, शुद्ध विज्ञान
और धर्मादि शुभ गुणों के आचरण से आत्मा की उन्नति करके, जीव मुक्ति
को प्राप्त होता है। अब इस विषय में प्रथम योगशास्त्र का प्रमाण लिखते
हैं। पूर्व लिखी हुई चित्त की पांच वृत्तियों को यथावत् रोकने और मोक्ष
के साधन में सब दिन प्रवृत्त रहने से, नीचे लिखे हुए पांच क्लेश नष्ट
(अविद्या०) एक (अविद्या), दूसरा (अस्मिता), तीसरा (राग),
चौथा (द्वेष) और पांचवां (अभिनिवेश)॥ १॥
(अविद्याक्षेत्र०) उनमें से अस्मितादि,चार क्लेशों और मिथ्याभाषणादि
दोषों की माता अविद्या है, जो कि मूढ़ जीवों को अन्धकार में फसा के
जन्ममरणादि दुःखसागर में सदा डुबाती है। परन्तु जब विद्वान् और
धर्मात्मा उपासकों की सत्यविद्या से अविद्या विच्छिन्न अर्थात् छिन्नभिन्न
होके (प्रसुप्ततनु) नष्ट हो जाती है, तब वे जीव मुक्ति को प्राप्त हो जाते
हो जाते हैं। वे क्लेश ये हैं-
हैं॥२॥
अविद्या के लक्षण ये हैं-(अनित्या०)अनित्य अर्थात् कार्य्य जो
शरीर आदि स्थूल पदार्थ तथा लोकलोकान्तर में नित्यबुद्धि तथा जो
(नित्य) अर्थात् ईश्वर, जीव, जगत् का कारण, क्रिया क्रियावान्, गुण
गुणी और धर्म धर्मी हैं, इन नित्य पदार्थों का परस्पर सम्बन्ध है, इनमें
अनित्यबुद्धि का होना, यह अविद्या का प्रथम भाग है।
तथा (अशुचि) मल मूत्र आदि के समुदाय दुर्गन्धरूप मल से
परिपूर्ण शरीर में पवित्रबुद्धि का करना, तथा तलाब, बावरी, कुण्ड, कुंआ
और नदी आदि में तीर्थ पर पाप छुड़ाने की बुद्धि करना और उनका
चरणामृत पीना; एकादशी आदि मिथ्या व्रतों में भूख प्यास आदि दुःखों
का सहना; स्पर्श इन्द्रिय के भोग में अत्यन्त प्रीति करना इत्यादि अशुद्ध
पदार्थों को शुद्ध मानना और सत्यविद्या, सत्यभाषण, धर्म, सत्संग, परमेश्वर
की उपासना, जितेन्द्रियता, सर्वोपकार करना, सब से प्रेमभाव से वर्त्तना
द शुद्धव्यवहार और पदार्थों में अपवित्र बुद्धि करना, यह अविद्या का
आदि
दूसरा भाग है।
तथा दुःख में सुखबुद्धि अर्थात् विषयतृष्णा, काम, क्रोध, लोभ, मोह,
सुख
करना, जितेन्द्रियता, निष्काम, शम, सन्तोष, विवेक, प्रसन्नता, प्रेम, मित्रता
आदि सुखरूप व्यवहारों में दुःखबुद्धि का करना, यह अविद्या का तीसरा
आशा
शोक, ईर्ष्या, द्वेष आदि दुःख रूप व्यवहारों में
भाग है।
इसी प्रकार अनात्मा में आत्मबुद्धि अर्थात् जड़ में चेतनभावना है,
चेतन में जड़भावना करना, अविद्या का चतुर्थ भाग है।
का हेतु होके उनको सदा नचाती रहती है।
यह चार प्रकार की अविद्या संसार के अज्ञानी जीवों को बन्धन
परन्तु विद्या अर्थात् पूर्वोक्त अनित्य, अशुचि, दुःख और अनात्मा में
अनित्य, अपवित्रता, दुःख और अनात्मबुद्धि का होना, तथा नित्य, शुचि,
सुख और आत्मा में नित्य, पवित्रता, सुख और आत्मा बुद्धि करना यह
चार प्रकार की विद्या है। जब विद्या से अविद्या की निवृत्ति होती है,
तब बंधन से छूट के जीव मुक्ति को प्राप्त होता है॥ ३॥
(दृग्दर्शन०) दूसरा क्लेश अस्मिता कहाता है अर्थात् जीव और बुद्धि
को मिले के समान देखना; अभिमान और अहङ्कार से अपने को बडा
समझना इत्यादि व्यवहार को अस्मिता जानना। जब सम्यक् विज्ञान से
अभिमान आदि के नाश होने से इसकी निवृत्ति हो जाती है, तब गुणों
के ग्रहण में रुचि होती है॥ ४॥
तीसरा (सुखानु०) राग, अर्थात् जो जो सुख संसार में साक्षात् भोगने
में आते हैं, उनके संस्कार की स्मृति से जो तृष्णा के लोभसागर में बहना
है इसका नाम राग है। जब ऐसा ज्ञान मनुष्य को होता है कि सब संयोग,
वियोग, संयोगवियोगान्त हैं अर्थात् वियोग के अन्त में संयोग और संयोग
के अन्त में वियोग तथा वृद्धि के अन्त में क्षय और क्षय के अन्त में वृद्धि
होती है, तब इसकी निवृत्ति हो जाती है॥५॥
(दु:खानु०) चौथा द्वेष कहाता है अर्थात् जिस अर्थ का पूर्व अनुभव
किया गया हो उस पर और उसके साधनों पर सदा क्रोधबुद्धि होना।
इसकी निवृत्ति भी राग की निवृत्ति से ही होती है॥ ६॥
(स्वरसवा०) पांचवां (अभिनिवेश) क्लेश है, जो सब प्राणियों को
नित्य आशा होती है कि हम सदैव शरीर के साथ बने रहें अर्थात् कभी
मरें नहीं, सो पूर्व जन्म के अनुभव से होती है। और इससे पूर्व जन्म भी सिद्ध होता है।
मुक्ति के लक्षण
अब व्यासोक्त वेदान्तदर्शन और उपनिषदों में जो मुक्ति का
और लक्षण लिखे हैं, सो आगे लिखते हैं-
(अभाव०) व्यास जी के पिता जो बादरि आचार्य थे, उनका
मुक्तिविषय में ऐसा मत है कि-जब जीव मुक्तदशा को प्राप्त होता है,
तब वह शुद्ध मन से परमेश्वर के साथ परमानन्द मोक्ष में रहता है और
दोनों से भिन्न इन्द्रियादि पदार्थों का अभाव हो जाता है।॥ १॥
तथा (भावं जैमिनि०) इसी विषय में व्यास जी के मुख्य शिष्य जो
| जैमिनि थे, उनका ऐसा मत है कि-जैसे मोक्ष में मन रहता है, वैसे ही
गद्धसंकल्पमय शरीर तथा प्राणादि और इन्द्रियों की शुद्ध शक्ति भी बराबर
बनी रहती है। क्योंकि उपनिषद् में ‘स एकधा भवति, द्विधा भवति,
धाभवति' इत्यादि वचनों का प्रमाण है कि मुक्त जीव संकल्पमात्र से
'
ही दिव्य शरीर रच लेता है और इच्छामात्र ही से शीघ्र छोड़ भी देता है
और शुद्ध ज्ञान का सदा प्रकाश बना रहता है॥ २॥
(द्वादशाह०) इस मुक्तिविषय में बादरायण जो व्यास जी थे, उनका
ऐसा मत है कि-मुक्ति में भाव और अभाव दोनों ही बने रहते हैं अर्थात्
क्लेश, अज्ञान और अशुद्धि आदि दोषों का सर्वथा अभाव हो जाता है
और परमानन्द, ज्ञान, शुद्धता आदि सब सत्यगुणों का भाव बना रहता है।
इसमें दृष्टान्त भी दिया है कि जैसे वानप्रस्थ आश्रम में बारह दिन
प्राजापत्यादि व्रत करना होता है, उसमें थोड़ा भोजन करने से
थोड़ा अभाव और पूर्ण भोजन न करने से क्षुधा का कुछ भाव भी
रहता है। इसी प्रकार मोक्ष में भी पूर्वोक्त रीति से भाव और अभाव समझ
लेना। इत्यादि निरूपण मुक्ति का वेदान्तशास्त्र में किया है।
अब मुक्तिविषय में उपनिषत्कारों का जो मत है, सो भी आगे लिखते
में स्थिर होके उसी में सदा रमण करती हैं, और जब बुद्धि भी ज्ञान से
(यदा पञ्चाव०) अर्थात् जब मन के सहित पांच ज्ञानेन्द्रिय परमेश्वर
विरुद्ध चेष्टा नहीं करती, उसी को परमगति अर्थात् मोक्ष कहते हैं ॥१॥
(तां योग०) उसी गति अर्थात् इन्द्रियों की शुद्धि और स्थिरता को
विद्वान् लोग योग की धारणा मानते हैं। जब मनुष्य उपासनायोग से
परमेश्वर को प्राप्त होके प्रमादरहित होता है, तभी जानो कि वह मोक्ष को
प्राप्त हुआ। वह उपासनायोग कैसा है कि प्रभव अर्थात् शुद्धि और सत्यगुणों
का प्रकाश करने वाला तथा (अप्ययः) अर्थात् सब अशुद्धि दोषों और
असत्य गुणों का नाश करने वाला है। इसलिये केवल उपासना योग ही
मुक्ति का साधन है॥२॥
(यदा सर्वे०) जब इस मनुष्य का हृदय सब बुरे कामों से अलग
होके शुद्ध हो जाता है, तभी वह अमृत अर्थात् मोक्ष को प्राप्त होके
आनन्दयुक्त होता है।
प्रश्न-क्या वह मोक्षपद कहीं स्थानान्तर वा पदार्थ विशेष है? क्या
वह किसी एक ही जगह में है वा सब जगह में?
उत्तर-नहीं, ब्रह्म जो सर्वत्र व्यापक हो रहा है, वही मोक्षपद कहाता
है और मुक्तपुरुष उसी मोक्ष को प्राप्त होते हैं ॥३॥
तथा (यदा सर्वे०) जब जीव की अविद्यादि बन्धन की सब गांठे
-
छिन्न भिन्न होके टूट जाती हैं, तभी वह मुक्ति को प्राप्त होते हैं ॥ ४॥
प्रश्न-जब मोक्ष में शरीर और इन्द्रियाँ नहीं रहतीं, तब वह जीवात्मा
व्यवहार को कैसे जानता और देख सकता है?
मुक्ति विषय निष्कर्ष संक्षेप में
याज्ञवल्क्य कहते हैं, हे गार्गि! जो
आयु, आकाश, सङ्ग, शब्द, स्पर्श, गन्ध, रस, नेत्र, कर्ण, वाक्, मन, तेज,
परब्रहा नाश, स्थूल, सूक्ष्म, लघु, दीर्घ, लाल, चिक्कन, छाया, अन्धकार,
प्राण, मुख, नाम, गोत्र, वृद्धावस्था, मरण, भय, आकार, विकास, संकोच,
मोक्षस्वरूप है, वह साकार पदार्थ के समान किसी को प्राप्त नहीं होता,
पूर्व, अपर, भीतर, बाह्य अर्थात् बाहर, इन सब दोषों और गुणों से रहित
परिपूर्ण, सबसे अलग, अद्भुतस्वरूप परमेश्वर है। उसको प्राप्त होने वाला
और न कोई उसको मूर्त द्रव्य के समान प्राप्त होता है क्योंकि वह सबमें
(बाहा साधन] कोई नहीं हो सकता जैसे द्रव्य को चक्षुरादि इन्द्रियों से
साक्षात् कर सकता है। क्योंकि वह सब इन्द्रियों के विषयों से अलग और
सब इन्द्रियों का आत्मा है॥ १३ ॥
तथा (ये यज्ञेन०) अर्थात् पूर्वोक्त ज्ञानरूप यज्ञ और आत्मादि द्रव्यों
की परमेश्वर को दक्षिणा देने से वे मुक्त लोग मोक्षसुख में प्रसन्न रहते
हैं। (इन्द्रस्य०) जो परमेश्वर के सख्य अर्थात् मित्रता से मोक्षभाव को
प्राप्त हो गये हैं, उन्हीं के लिये भद्र नाम सब सुख नियत किये गये हैं
अङ्गिरसः) अर्थात् उनके जो प्राण हैं, वे (सुमेधसः) उनकी बुद्धि के
अत्यन्त बढ़ाने वाले होते हैं। और उस मोक्षप्राप्त मनुष्य को पूर्वमुक्त लोग
अपने समीप आनन्द में रख लेते हैं और फिर वे परस्पर अपने ज्ञान से
एक-दूसरे को प्रीतिपूर्वक देखते और मिलते हैं ॥ १ ॥
(स नो बन्धुः०) सब मनुष्यों को यह जानना चाहिये कि वही
परमेश्वर हमारा बन्धु अर्थात् दुःख का नाश करने वाला, (जनिता०) सब
सुखों को उत्पन्न और पालन करने वाला है तथा वही सब कामों को पूर्ण
करता और सब लोकों को जानने वाला है कि जिसमें देव अर्थात् विद्वान्
लोग मोक्ष को प्राप्त होके सदा आनन्द में रहते हैं और वे तीसरे धाम अर्थात्
शुद्ध सत्त्व से सहित होके सर्वोत्तम सुख में सदा स्वच्छन्दता से रमण करते
हैं॥२॥
इस प्रकार संक्षेप से मुक्तिविषय कुछ तो वर्णन कर दिया और कुछ
आगे भी कहीं कहीं करेंगे, सो जान लेना। जैसे 'वेदाहमेतं' इस मन्त्र में
भी मुक्ति का विषय कहा गया है।
इति मुक्तिविषयः संक्षेपतः॥
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